गूँगी आँखों का विलाप / भरत प्रसाद
आओ ए आओ !
तनिक उठाओ मेरी आत्मा को
सुलगा दो मेरी चेतना
झकझोर दो मेरी जड़ता
चूर-चूर कर डालो मेरा पत्थरपन
तुम्हें पहचानने में कहीं देर न हो जाए
नहीं चलने दूँगा
तुम्हारे ख़िलाफ़ अपने मन की बेईमानी
नहीं बढ़ने दूँगा
तुम्हारे ख़िलाफ़ अपने उठे हुए क़दम
नहीं सोने दूँगा
तुमसे बेफ़िक्र रहकर जीता हुआ शरीर
मजाल क्या कि
तुम्हारे सपनों का सपना देखे बग़ैर
मेरी आँखें चैन से सो जाएँ
गहरी लकीरों से पटे
तुम्हारे निष्प्राण चेहरे का
असली गुनहगार कौन है ?
जीवन के हर मोर्चे पर
तुम्हारे शरीर को ढाल बनाने वाला
मेरे सिवा कौन है?
यह मैं ही हूँ
जो तुम्हें तुम्हारे ही देश से
बेदखल करता रहा हूँ निरन्तर
भीतर-बाहर से
टूट-टाट चुके तुम्हारे शरीर को
सहलाने का जी क्यों करता है?
क्या है तुम्हारी आँखों में कि
सदियाँ विलाप करती हैं
तुम्हारा मौन चेहरा
हमें धिक्कारता ही क्यों रहता है ?
तुम्हारे मुड़े तुड़े ढाँचे को देखकर
मैं अपनी ही नज़रों में क्यों गिरने लगता हूँ ?
रोम-रोम पर दर्ज है
तुम्हारे ख़ून पसीने का कर्ज़
मिट ही नहीं सकते पृथ्वी से
तुम्हारे पैरों के निशान
गूँजता है सीने में
तुम्हारे सीधेपन का इतिहास
मचलता है मेरी आँखों में
तुम्हारी गूँगी आँखों का विलाप।