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गूँजती है फिर नदी-घाटी / कुमार रवींद्र
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गूँजती है फिर
नदी-घाटी
बाँसुरी के सुर हवाओं में
आग की पगडंडियों पर
फूल खिल आये
चीड़वन पर मेघ-बरखा के
हैं घने साये
चित्र दिखते
झील-पोखर के
क्षितिज पर पसरी घटाओं में
बज रही है
धुन कहीं संतूर की भी
गूँज आती है हँसी की
दूर की भी
लौट आया है
असर
फिर से फ़कीरों की दुआओं में
काश, यह इतिहास भूलों का
न होता
कोई भी बच्चा
कभी भी नहीं रोता
ज़िक्र होता सिर्फ़
परियों का
रोज़ दादी की कथाओं में