गूँजेगें मेरे गीतों के सब स्वर सभी दिशाओं में / सुभाष पाण्डेय
गूँजेगें मेरे गीतों के सब स्वर सभी दिशाओं में।
धरा- गगन में, जन- जन-मन में, मन्द, स्वच्छन्द हवाओं में।
पीड़ा के स्वर गानेवाला एक अकेला कवि हूँ मैं।
सच पूछो तो घोर तिमिर में प्रखर चमकता रवि हूँ मैं।
ज्योति-अगन में, चन्द्रकिरन में, इन अलमस्त फ़जाओं में।
शब्द नहीं, मेरे गीतों में वेद-ऋचाएँ रहती हैं।
तुलसी, सूर, कबीरा बसते, गंगा- यमुना बहती है।
नींद- शयन में, वन- उपवन में, सुमन, सुगंध, लताओं में।
यज्ञ नया, नित मंत्र नया, नित हवनकुण्ड तैयार करूँ।
डालूँ समझौतों की समिधा, उसे जला दूँ, क्षार करूँ।
भक्ति- भजन में, श्रवण- मनन में, सदा सुकोमल भावों में।
युगद्रष्टा मैं, मैंने देखा दुनियाँ का बनना- मिटना।
दूर किनारे खड़े लिख रहा, घटती है जैसी घटना।
सजल नयन में, आर्त बयन में, शुचि "संगीत", अदाओं में।