भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गूंजता सुमधुर स्वर धरा नभ / कुलवंत सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गूंजता सुमधुर स्वर धरा नभ
छेड़ा किसने स्वप्निल तान.
पल्लवित पुलकित पावन प्रकृति
सुना रही क्या मधुरिम गान.
 
व्याकुल तन था अंतस अधीर
जीवन प्रस्तर नीरव भान.
सुचि सुर संयत शीतल समीर
आ आ कर भरे हृदय प्राण.
 
व्यथित विकल विकराल वेदना
कुंठित दुख का नहीं निदान.
संगीत लहर विमल अनुभूति
जाग्रत प्राण सहज मुस्कान.
 
पावन अंचल मन प्रांगण मौन
संचित पावक गात म्लान.
झरनों सी झर झर धाराएँ
बिखरे सुर मृदु स्वप्न समान.
 
धधक धधक कर जल रही अग्नि
फूट फूट नयनों से धार.
बह बह सुर संगीत अलौकिक
हंस हंस भरते जीवन सार.
 
आतप तापित गरल प्रवाहित
शापित कलुषित उलझी राह.
सरगम सरिता श्वास जगाती
भरती जग जीने की चाह.