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गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे / साग़र निज़ामी

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 गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे ।
हम रात को ख़ुर्शीद में ज़म होने न देंगे ।

ये दर्द तो आराम-ए-दो-आलम से सिवा है,
ऐ दोस्त तिरे दर्द को कम होने न देंगे ।

मफ़्हूम बदल जाएगा तस्लीम-ओ-रज़ा का,
अब हम सर-ए-तस्लीम को ख़म होने ने देंगे ।

सरसर को सिखाएँगे लताफ़त का क़रीना,
फूलों पर हवाओं के सितम होने न देंगे ।

ऐ कातिब-ए-तक़दीर हमारी भी रज़ा पूछ,
यँ नाला-ए-तक़दीर रक़म होने न देंगे ।

जब तक है दिल-ए-ज़ार में इक क़तरा-ए-ख़ूँ भी,
कम-मर्तबा-ए-लौह-ओ-क़लम होने न देंगे ।

जो ज़िन्दा ओ हस्सास बुतों की है अमानत,
उस सज्दे को हम नज़्र-ए-हरम होने न देंगे ।

उठ जाएँगे जूँ बाद-ए-सबा बज़्म से तेरी,
तुझ को भी ख़बर तेरी क़सम होने न देंगे ।

लाखों का सहारा है यही जाम-ए-सिफ़ाली,
साग़र को कभी साग़र-ए-जम होने न देंगे।