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गेहूँ का दाना / कुमार कृष्ण

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मिट्टी में दबी मनुष्य की भूख
जितनी बार होती है गर्म आग पर
उतनी ही बार-
बदलती है अपना रंग अपना रूप
पिस-पिस कर, जल-जल कर
भूख में कराहती आवाज़ है गेहूँ का दाना

वह न हंसना जानता है न रोना
पक्षी की चोंच में उड़ता जीवन है गेहूँ का दाना

वह है भूख में लड़ती गर्म हथेलियाँ
किसान के पांव
धरती में गड़ा अमृत-बीज
जीवन के, कविता के पंख
मनुष्य की नींद है गेहूँ का दाना

वह है सपनों की उम्मीद
मिट्टी की मिठास
बंजर होते खेतों के शोकगीत
मनुष्य का सबसे पहला प्यार
वह है भूख का भगवान
उगने दो उसे पुरानी ठसक के साथ
मत मारो ज़हर देकर
मनाने दो-
पृथ्वी का, मनुष्यता का उत्सव।