गैवी योगी / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
वरिस दिवस वीते यहि भाऊ। एक दिवस योगी एक आऊ॥
वैठो कुंअर सभा में जांहा। दियो अशीष शंखधुनि मांहा॥
मनमोहन तब किय परनामा। कदम वृक्ष करिये विश्रामा॥
तब आसन करि चरन खटारा। विमल विष्णु पद कीन उचारा॥
परम युक्ति पुनि पूछ कुमारा। स्वामी चरण कहांते धारा॥
बोले सिद्ध सुनो हो रोऊ। कहां कहां के कहिये नाऊ॥
विश्राम:-
कछु दिन सागर तटे रहे, ज्ञानदेव नृप पांह।
वहुत वहुत सच पायऊ, ज्ञान उदयपुर मांह॥195॥
चौपाई:-
सुनत वचन भै सुरति कुमारा। कहे उदयपुर ज्ञान भुवारा॥
मनमोहन मन पुलकित भयऊ। अधिक मान गैबी कर कियऊ॥
खान पान पकवान जेवांये। गैवी राम वहुत सुख पाये॥
एक पहर निशि चलि भौ राऊ। मिलि मैना गैबी पंह आऊ॥
पुनि दुहु बढो प्रेम व्यवहारा। मनमोहन मुख वचन उचारा॥
कवन उदयपुर कहहु गोसाई। ज्ञानदेव भूपति तेहि ठांई॥
विश्राम:-
प्रथम कह्यो योगीश्वर, ज्ञानदव कुशलात।
औ पुनि कह्यो जवन विधि, ज्ञानमती दिन रात॥196॥
चौपाई:-
कह योगी सुनु राजकुमारा। छव ऋतु रहे राजदर्वारा॥
मोहि कछु कहत न वनत नरेशा। औ कछु कहन कह्यो संदेशा॥
गैवी कह्यो सुनो हो भाई। सेवक ह्वै मन कपट गंवाई॥
ज्ञानमती दुख देखिसुभाऊ। मम उर अंतर मोहन जाऊ॥
वहिके दुख मोहि दिहु बौराई। फिरत फिरत इतअमरे आई॥
जो तुम पूछब कुंअरि कहानी। कहों छवो ऋतु दुःख वखानी॥
विश्राम:-
अधिक चोप चित कुंअरके, प्रेम भाव अनुसार।
करहु कृपा योगीश्वर, कहो कुंअरि व्यवहार॥197॥