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गॉंव रहे ले दुनिया रइही / गॉंव कहॉं सोरियावत हें

Kavita Kosh से
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माँ अउ मातृभूमि ल सरग ले घलव महान कहे गये हे। मैं ह एम मातृभाषा ल घलव जोड़िहौं, काबर के हमन जइसन अउ जतका अपन बोली या भाखा म कहे सकत हन, ओइसन अउ ओतका आने भाखा या बोली म नइ कहे सकन। `गाँव कहाँ सोरियावत हें'बुधराम यादव जी के अइसन किताब आय, जउन ह उँकर मातृभाखा-परेम ल उजागर करत हे। कहे बर हमन सब गाँव-गंवई म जनमे-पले-बढ़े हन, फेर सहर के परभाव म आ के गाँव ल जानौ-मानौ भुलाइच डारे हन। `जुग भर के जोरे मया-पिरीत के गठरी सब छरियाव हें'।

मनखे ह आने जीव-जन्तु मन ले कउन रूप म अगुवाए हे? जिए बर सबो ल हवा-पानी-अन्न के ज़रूरत होथे, फेर मनखेपन के अतकेच कहनी नो हय–हमर सभ्यता अउ संसकिरति के नाँव खा-पी के, जीके नइ धराय गय हे। ओ ह सब के सुख म सुखी अउ सबके दुख म दुखी होय के नाँव आय। हमर सुवा, ददरिया, करमा, भरथरी, चंदैनी, पँडवानी, ढोला-मारू, आल्हा, रमायन के जउन रिवाज रहिस हे, ओ ह सोझे देखाए-सुनाए बर नई रहिस–ओ मन हमर सुख-दुख के, मया-पिरीत के समुंदर हें, जउन आज `तरिया, नदिया, कुवाँ, बवली के पानी असन अटावत हें। '

`गाँव कहाँ सोरियावत हें' के कउनो छंद ल पढ़ौ अउ देखौ कि गाँव म काली कइसन सुमता-मया रहिस अउ आज का हो गे हवय। बुधराम जी अपन हिरदे के पीरा ल कहत नइ अघावत हें के

" जुन्ना दइहनहीं म जब ले
दारू भट्ठी होटल खुलगे
टूरा टनका मन बहकत हें
सब चाल चरित्तर ल भुलगें
मुख दरवाजा म लिखाये
हावय पंचयती राज जिहाँ
चतवारे खातिर चतुरा मन
नइ आवत हावंय बाज उहाँ
गुरतुर भाखा सपना हो गय
सब काँव-काँव नरियाव हें। "

पूरा किताब ह एकेच ठन कविता म पूर गे हे। `गठरी सब छरियावत हें', घंघरा-घुंघरू, घुम्मर-घांटी, `सबके मुड़ पिरवाथें' , चाल चरित म कढ़े रहँय, दुबराज चाँउर के महमहाब, `बिन-पानी', `सारंगी जब बाजय' , `नाचा-गम्मत', `मातर-जागँय' , `महँगा जमो बेचावत हें', `अँखमुंदा भागत हें' , -ए बारा ठन सिरसक मन म गाँव के तइहा के बरनन अउ आज के हालत ल कवि ह जइसन देखिस तइसनेच उद्गारे हवय, जउन म हमर गाँव के परकिरति अउ संसकिरति ह परगट झलकत हे।

आधुनिक सभ्यता के आए म हमन का सिरतोन अगवाए हन? जउन ह पहिली समस्या नइ रहिस, ओ ह आज अइसन बिकराल रूप धरत जात हे के कउन जनी, दस-बारा बछर के बाद ए धरती के का होही? पानी ल जीवन कहे गय हे–बिन पानी सब सून। आज पानी के समस्या गाँव-गाँव, सहर-सहर म बियापे हे। एकर का उपाय हे? आवव देखी-

`रतनपुर जइसन कइ गढ़ के, छै-छै कोरी तरिया
बिना मरम्मत खंती माटी, परे निचट हें परिया
बरहों महीना बिलमय पानी, सोच उदिम करवइया
जोगी डबरा टारबाँध, स्टापडेम बनवइया।
मिनरल वाटर अउ कोल्डड्रिंक फेंटा पीके गोरियावत हें। '

हमन रूख-राई ल काट के जंगल के सइतानास कर डारेन अउ नवा-नवा, किसिम-किसिम के पेंड़-पौधा ल रोपे के नाटक करत हन–पानी कहाँ ले बरसही एकरे सेती आज `भादो महीना रोवय' , कहे म का अचरज हे।

नवा जमाना म आके जइसे हमन अपन पुरखा मन के नाव घलव ल बिसर डारेन अउ जिहाँ देखौ, उहां टी.व्ही।, वीडियो फिलिम, सीरियल के नकली चरित्तर ल देख सुन के नवा पीढ़ी के लइका मन फेसन के आड़ म अपन बेवहार म लावत हें, अउ जिनगी ल स्वाहा करत हें। धरम-करम के जइसे जानव नाव ह नंदा गे हे–

`पुतरी अउ ओ रहस लीला के
दिन जानव दुरिहागंय
टी.व्ही. विडियो फ़िल्मी एलबम
ठौर म इंकर समागंय
ब्रह्मा बिसनू पारबती सिव
संग राधा गिरधारी
बिसर के चारोंधाम करावत
हें सीरियल म चारी। '

कवि के धियान छतीसगढ़ के गाँव-गाँव के अंगना बारी, गली-खोर, खेत-खार, जंगल-पहार, नदिया-नरवा, तरिया-डबरी–सबके उपर जाथे अउ ओखर आँखी-देखे हाल ल बतावत नइ अघाय, फेर बस्तर के संसो घलव ह ओ ल अब्बड़ घालथे। जउन बस्तर ल कभु सांती के टापू कहत रहिन हे जिहाँ जंगल म मंगल रहिस हे उहाँ अब-

`बघवा भलुवा चितवा तेुदवा सांभर अउ बन भंइसा
रातदिना बिचरंय जंगल में बिन डर भय दू पइसा
नक्सलवादी अब इंकर बीच डारत हांवय डेरा
गरीब दुबर के घर उजार के अपन करंय बसेरा
तीर चलइया ल गोली-बारूद भाखा ओरखावत हें। '

ए किताब म कवि के भाखा के कमाल देखत बनथे। छत्तीसगढ़ी के गुरतुर सेवाद कहूँ-कहूँ पं। सुन्दरलाल शर्मा के `दानलीला'के सुरता कराथे, त कहूँ-कहूँ पं। मुकुटधर पांडेय के `मेघदूत' (अनुवाद) के. विसय-वस्तु के बरनन अर सैली म पं। गोपाल मिश्र के `खूबतमाशा' के सुरता देवइया ए किताब ह छत्तीसगढ़ी बोलइया मन के अंतस ल तो जुड़वाबेच करही, हिन्दी अउ आने बोली बोलइया मन ल छत्तीसगढ़ी सीखे बर मददगार साबित होही। छत्तीसगढ़ी भाखा के छत्तीसगढ़ीपन ल जाने बर नमूना खातिर खाल्हे लिखे परयोग ल देखौ–

`आनी-बानी, बारी-बखरी, छर्रा-छिटका, हाट-बाट, देवता-धामी, पितर-गोतर, साग-पान, घर-कुरिया, कद-काठी, नाती-नतुरा, खोर-गली, गहना-गुरिया, नकटा-बुचुवा, मारे-कूटे, मरहा-खुरहा, भड़वा-बरतन, खेत-खार, मिसे-कुटे, धान-पान, गाय-गरू, भाजी-भांटा, गाँव-गँवई, मेला-मड़ई, बर-बिहाव, अन-धन, चिरइ-चिरगुन, डोंगरी-पहरी, दूध-दही, बरा-सोंहारी, चुल्हा-चौकी जइसन द्विरूक्तिमूलक सबद मन म छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी संसकिरति के साँस अउ आस रचे-बसे हें। जउन मन छत्तीसगढ़ी के हाना-जनउला ल नइ जानंय, ओ मन बिन पानी के दू असाढ़ (दुब्बर ल दु असाढ़) , गर म छुरी चलावन, अलख जगावन, राग मिलावन, करम ठठावन, कदम मिलावन, सरग म गोड़ लमावन, कलकुत, कर-कइया, कुकुर-कटायन जइसन परयोग ल ए किताब म जगा-जगा देखे सकत हें।

छत्तीसगढ़ी के गुरतुरपन ल बढ़ाय म घुटुर-घुटुर, घरर-घरर, घमर-घमर, खटर-खटर, बटर-बटर, टपटप-टपटप, लकर-धकर, जइसन ध्वन्यात्मक सबद मन के का कहना।

जमो मिलाके बुधराम यादव के किताब ह अपन माटी महतारी के महिमा के बखान करे म कउनो कसर नइ छोड़े हे, जउन म अपन भाखा और संसकिरति के अंजोर ह मनखे पन ल उजागर करथे, काबर के–

`गाँव रहे ले दुनिया रइही, पाँव रहे ले पनही
आँखी समुहें सबो सिराये ले पाछू का बनही
दया-मया के ठाँव उजरही, घमहा मन के छइहाँ
निराधार के ढेखरा कोलवा, लुलुवा मन के बइहाँ।
गणेश चतुर्थी, भादो, सन्' 2010

 (डॉ. चितरंजन कर)
प्रोफेसर (सेवानिवृत्त)
साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय
रायपुर