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गोंवई लट्ठा / तरुण

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टुन्-टुन्, टुन्-टुन् घण्टी बजाता-
अली-गली में घूमता फिरता है एक
काला मुस्टंडा, हट्टा-कट्टा
मूसल-जैसा अपने काँधे चढ़ाए
एक मोटा भारी डण्डा-जिसे मैं कहता गोंदई लट्ठा:
उस पर जमा रहता है खाँड-चीनी की चाशनी का
लद्वड़-चिपट्टू गाढ़ें गोंद का-सा गुँथा-घुटा लोथड़ा
-रंगबिरंगा।
उसे उलीचता-भींचता-खींचता-फेंटता
खिलौने से कुछ बनाता चल रहा है, खरामा-खरामा।
बच्चों को घरों से बुलाता सा-कहता
साईकल बनाऊँगा, मोटर बनाऊँगा
पण्डित बनाऊँगा, मौलवी मनाऊँगा
बिल्ली बनाऊँगा, दिल्ली बनाऊँगा...

कितनी पुरानी बात है।

वही आवाज आ रही है मेरे कान में
आज भी कहती-
‘जिसका जो कहो, मैं बना डालूँ।’
राजा भैया, बचुआ,
इस देश को, देश की जनता को भी बना दूँगा तू कहे जैसा-
बन्दर बनाऊँगा, उल्लू बनाऊँगा, बनाऊँगा गैंडा, बनाऊँगा भैंसा,
लपककर जल्दी ला मम्मी से खन्-खन् पैसा।

मैं तो चला-टन्-टन्-टन्-टन्।

1990