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गोद में किलकारियाँ तड़पती हैं / बाल गंगाधर 'बागी'

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अक्सर गोद में किलकारियाँ तड़पती हैं
माँ को खाने की जब रोटी नहीं मिलती हैं
कितने दम तोड़ते हैं माँओ के आँचल में
दूध की धारें जब गले नहीं उतरती हैं

पसलियाँ सूखे पेड़ सी हैं अकड़ जाती
अक्सर, सूखी ज़मीन-सी हैं फट जाती
झोपड़ियाँ नाजुक घोंसलों की तरह
हवा के एक ही झोंके से हैं पलट जाती

फटे ऐड़ियों की खाईयाँ दिखाये किसे
इनकी चीखती आवाज को सुनाये किसे
किनके कान इन दर्द को सुन पायेंगे
उबलते दर्द के लहू में उतर जायेंगे

जवान जहाँ बूढ़े की हमशकल1 लगते
रास्ता चलते संभलते फिर भी गिरते
जातीय दमन कितनी बड़ी बला है
क्या इंसान होने की ये सजा है

शाम ढलते ही रात रोने लगती है
झोपड़ी में क्यंू ज़िन्दगी यूं पलती है
ज़िन्दगी जीना है जहाँ रात के अंधेरे में
आगे बढ़ना है आँसुओं के मेले में

वो भीख मांगेंगे, तो बाबा कहलायेंगे
हम मांगेगे तो, भिखारी हो जायेंगे
ये किस शहर, किस गाँव की गरीबी है
फटे कपड़े में जो, कंकाल जैसी दिखती है