गोधूलि सन्धि का नृत्य / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
दर-दालान की भीड़ में पृथ्वी के छोर पर
जहाँ खामोशी टूटी पड़ी है
वहीं ऊँची-ऊँची हरित लताओं के पीछे
हेमन्त की साँझ का गोल-गोल सूर्य-उगता है रंगीन-
आहिस्ते-आहिस्ते डूबता है-चाँदनी में
पीपल के पेड़ पर बैठकर अकेला उल्लू
रहता है देखता-सोने की गेंद की तरह सूर्य और
चाँदी के डिब्बे से चाँद का जाना-पहचाना चेहरा
हरित की शाखा के नीचे जैसे हीरे का स्फुलिंग
और स्फटिक की तरह साफ़ जल का उल्लास,
नरमुण्ड की अवछाया-निस्तब्धता-
बादामी पत्तों की गंध-कधुकूपी घास।
कई एक स्त्रियाँ दिव्य और दैवी
पुरुष उनके, कर्म रत नवीन के लिए
जूड़े के बालों में-नरक के नवजात मेघ,
पाँव तले हांगकांग की घास रौंदने का स्वर,
वहाँ एकान्त जल म्लान होकर फिर हीरा बनता है,
पत्तों के गिरने का कोई शब्द नहीं,
फिर भी वे टेर पाते हैं तोप के स्थविर गर्जन से
हो रहा है तबाह शंघाई।
वहाँ यूथचारी कई एक नारी
गहरे चाँद के नीचे आँख और केश के संकेत सोचती हैं
मेधाविनी, कि देश और विदेश के पुरुष
युद्ध और व्यापार के खून में, अब नहीं डूबेंगे।
प्रगाढ़ चुम्बन क्रम से खींच रहे हैं उन्हें
रूई के तकिये पर सर रखकर मानवीय नींद में-
कोई स्वाद नहीं है, इस झुकी पृथ्वी की मैदानी तरंग में
उस चूर्ण भूखण्ड हवा में-वरुण में।
क्रूर पथ ले जाती है हरीतकी वन में-ज्योत्स्ना में।
युद्ध और व्यापार की चहल-पहल भरे धूप के दिन
बीत गये हैं सब, जूड़े में टँका है नरक का गूँगा मेघ,
हर क़दम पर-वृश्चिक-कर्क-तुला-मीन।