राग धनाश्री
गोपाल राइ चरननि हौं काटी ।
हम अबला रिस बाँचि न जानी, बहुत लागि गइ साँटी ॥
वारौं कर जु कठिन अति कोमल, नयन जरहु जिनि डाँटी ।
मधु. मेवा पकवान छाँड़ि कै, काहैं खात हौ माटी ॥
सिगरोइ दूध पियौ मेरे मोहन, बलहि न दैहौं बाँटी ।
सूरदास नँद लेहु दोहनी, दुहहु लाल की नाटी ॥
भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं (माता पश्चाताप करती कह रही हैं )` अपने राजा-गोपाल के चरणों में मैं तो कट गयी ( इसके सामने मैं लज्जित हो गयी )। मैं अबला (नासमझ) हूँ । अपने ही क्रोध को रोक न सकी । छड़ी की चोट लाल को बहुत लग गयी । इस परम कोमल बेटे पर अपने इन अत्यन्त कठोर हाथों को न्योछावर कर दूँ; मेरे ये नेत्र जल जायँ, जिनसे मोहन को मैंने डाँटा । लाल! तुम मधु, मेवा और पकवान छोड़कर मिट्टी क्यों खाते हो ? मेरे मोहन! तुम सारा दूध पी लो, बलराम को इसमें से कुछ भी अलग करके नहीं दूँगी । व्रजराज ! वह दोहनी लो और मेरे लाल की नाटी (छोटी) गैया दुह दो।'