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गोपी बिरह(राग मलार-2) / तुलसीदास

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गोपी बिरह(राग मलार-2)

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मधुकर ! कान्ह कही ते न होही।
 कै ये नई सीख सिखई हरि निज अनुराग बिछोही।1।

राखी सचि कूबरी पीठ पर ये बातेें बकुचौहीं।
 स्या मसो गाहक पाइ सयानी! खेालि देखाई है गौहीं।2।

नागर मनि सोभा सागर जेहिं जग जुबतीं हँसि मोहीं।
 लियो रूप दै ग्यान गाँठरी भलो ठग्यो ठगु ओहीं।3।

है निर्गुन सारी बारिक, बलि घरी करौं , हम जोही।
तुलसी ये नागरिन्ह जोग पट , जिन्हहि आजु सब सोहीं।4।

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मधुप! तुम्ह कान्ह ही की कही क्यों न कही है?।
यह बतकही चपल चेरी की निपट चरेरीय रही है।1।

कब ब्रज तज्यो, ग्यान कब उपजो? कब बिदेहता लही है?
गए बिसारि रीति गोकुल की, अब निर्गुन गति गही है।2।

आयसु देहु, करहिं सोइ सिर धरि, प्रीति परमिति निरबही है।
 तुलसी परमेश्वर न सहैगो, हम अबलनि सब सही है।3।