गोरवन के राज रहे, बिगड़ल समाज रहे / विजेन्द्र अनिल
उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द की याद में
गोरवन के राज रहे, बिगड़ल समाज रहे।
मकरी बीनत रहे जाला मोर सथिया।
जनता तबाह रहे, सूझत न राह रहे,
देसवा के निकले देवाला मोरे सथिया।
पापी अँगरेजवन के जुलुम बढ़त रहे,
मदत में सेठ-साहूकार मोरे सथिया।
राजा-महाराजा, जमींदार, पटवारी सभे
चूसत रहे जनता के खून मोरे सथिया।
देसवा के पनिया, विदेस के मछरिअन से
आपन मिठासवा गंवावे मोरे सथिया।
विद्या आबरू संस्कृति देस के बिलात रहे
धुनत रही सुरसती माथ मोरे सथिया।
कपिल, कणाद, व्यास, वाल्मीकि, कालीदास
केहू के ना होत रहे पूछ मोरे सथिया।
सूरदास, तुलसी, कबीर के कवित्त-सभ
खोजलो प कतो ना भेंटात मोरे सथिया।
हिन्दिया त बनल रहे, चेरिया-लँउड़िया हो
अँगरेजी बनल महरानी मोरे सथिया।
देस के किसनवा-मजूरवा बेहाल रहन
केहू नाहीं रहे पूछनिहार मोरे सथिया।
ओही रे समइया में कीच के कँवल लेखा,
प्रेमचन्द लिहलन जनम मोरे सथिया।
जेकरा ना जिनिगी में पनिया भेंटाइल रहे,
ओकरो पिअसिया मिटवलन मोरे सथिया।
जेकरा न हूब रहे, ठाढ़ होके चलहूँ के
ओकरो के लठिया थम्हवलन मोरे सथिया।
तोपवा-बनूकवा के कमवा कलम कइलस,
अँगरेजी राज हलकान मोरे सथिया।
लोरवा जेकर केहू पोछले ना रहे कबो
ओकरो के नायक बनवलन मोरे सथिया।
होरी, हीरा, घीसू, माधो, गोबर आ धनिया कि
सभवा के बीचवा बइठलन मोरे सथिया।
‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘गबन’, ‘गोदान’ लिखि के
हमनीं के रहिया देखवलन मोरे सथिया।
छपन बरिस के उमरिया में चलि गइलन,
देस-दुनिया रोवे बुक्का फारि-मोरे सथिया।
बाकी रही कायम हरदम उनुकर निसनियाँ हो
उफ त हवन रोसनी के खान मोर सथिया।
अबहीं ना देस के बिपतिया घटल बिया
सुखी ना किसान-मजदूर मोरे सथिया।
बेलछी, नरायनपुर, पिपरा आ पारस बिगहा
जुलुम के कहता कहानी मोरे सथिया।
दुनिया में बढ़ल आवे, समराजी पँजवा हो
देसवा में मचल हहकार मोरे सथिया।
जहाँ-जहाँ होतबा बिरोधवा जुलुमवा के
उहाँ बाड़न प्रेमचन्द ठाढ़ मोरे सथिया।
रचनाकाल : 28.7.1980