भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गोरी के गीत (सात भाग) / शिवशंकर मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(एक)
मन से मन लहराए,
नयन से नयन मिले, अरूझाए,
सजनिया, राम किसे ना भाए!

प्रेम न जाने बंधन- बाधा,
दीवानी जनमी ही राधा,
गली- गली फिर आए!
सजनिया, राम किसे ना भाए!

बीते माह-बरष, युग बीता,
सूना पनघट, उर घट रीता,
याद करेज दबाए!
सजनिया, राम किसे ना भाए!

(दो)
दिन भर कँगना बाजे, लेकिन
रतिया में जब बाजे रे-
गोरी रो- रो पिया पुकारे,
परदेसी के वचन विचारे,
लेकिन मन जब हहरे, बोले,
‘आए क्योंा ना आजे रे!’
‘कितना दरद भरा है तन में
कितना दरद भरा हे मन में,
किस से मैं लिखवाऊँ ये सब,
मर जाऊँगी लाजे रे।‘

(तीन)

तन तड़पे मछली-सा मरु में,
मन प्यासे मुरझाए!

तन का जहर जलाए तन को
अँग-अँग आग धधाए,
मन की सुधा न मिलती मन को,
मन बुझकर रह जाए!

तन की गाँठें गिनी न जाएँ,
पोर-पोर ऐँठाए,
खून चुए मन की गाँठों से,
थमने में ना आए!

परदेशी की बतियाँ झूठी,
वादे झूठे, पतियाँ झूठी,
रात-रात भर तड़पे गोरी,
दिन भर हा-हा खाए!

(चार)
सावन बीत गया, भादों पर जान जलाए,
सेंक लगाती ठंडी हवा पुरबिया वाली!

मन का मौसम गर्म जेठ-सा
धह-धह जैसे,
प्यासे प्रान सुखाएँ मरु में
रह-रह जैसे;
अब तो एको चले नहीं बरजोरी, सारा
जोर छीन ले ठंडी हवा पुरबिया वाली!

आग सही नहीं जाए तनिक अब
इस पानी की,
कितनी लड़ी लड़ाई, कितनी
मनमानी की;
बिफर बहुत उठती है छाती अँगिया में जब
फूँक लगाती ठंडी हवा पुरबिया वाली!

क्या जाने किस देस में जाके
अटके पिउवा,
तन टूटे, तड़पे मछली-सा,
भटके जिउवा;
धीर न थोड़ा आए, मन बौरा दे ऐसा,
यह डायन-सी ठंडी हवा पुरबिया वाली!

(पाँच)
ठंडी-ठंडी रात,
अंगड़कर रह जाए तन-गात,
कहूँ मैं किस से मन की बात,
कि मन अब टूटे रे!

पिया गए परदेस,
न भेजे एको तो संदेस,
कभी जो कल आ जाए लेस,
करम ही फूटे रे!

चदरी लगती भार,
भाड़ में जाए चुनरी हार,
कि तन के आगे आर न पार,
लहरिया छूटे रे!

मैं क्या जानूँ चोर,
सताएगा ले जियरा मोर,
कि मन अब खाए हाय मरोर,
बलमुवा झूटे रे!

(छह)
पीपर पर पुरवैया नाचे,
गोरी का मन नाचे रे!
 
चुनरी लहरे, उड़-उड़ जाए,
नाक उलटकर लट छू जाए,
कोई कैसे कहाँ छिपाए,
बतिया हो जब साँचे रे!

तरह-तरह के भेद जगत में,
बने रहे हैं भेद जगत से,
कैसे मन का भेद छिपे जब,
मन ही बोले बाँचे रे!

उलझी-उलझी अँखियाँ डोलें,
मन की छिपी हुई सब खोलें,
कैसे कोई खुद को रोके,
मन जब भरे कुलाँचे रे!

(सात)

गोरी गदगद इत-उत डोले,
मन ही मन पगुराए रे!

आएँगे कल साँवरिया घर,
भटेंगी गोरी भुज-भुज भर,
बह जाएगा तन लहरों पर,
सोचे गोरी, बात मिलाए,
खुश होए, इतराए रे!

मन मोंजर से लद कर लाल,
महके जयों अमिया की डाल,
महु आए गोरी के गाल;
आयी याद न जाने क्या जो,
गोरी चुप मुसकाए रे!

सूरज डूबा, आयी साँझ,
खनके कँगना, झनके झाँझ,
चुप्पी टूट गयी कि आज;
दीप जलाए गोरी घर में,
मन जोती में न्हाए रे!