भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गोर में याद-ए-क़द-ए-यार ने सोने न दिया / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'
Kavita Kosh से
गोर में याद-ए-क़द-ए-यार ने सोने न दिया
फ़ितना-ए-हश्र को रफ़्तार ने सोने न दिया
वाह रे ताला-ए-ख़ुफ़्ता के शब-ए-ऐश में भी
वहम-ए-बे-ख़्वाबी-ए-अग़्यार ने सोने न दिया
वा रहीं सूरत-ए-आग़ोश सहर तक आँखें
शौक़-ए-हम-ख़्वाबी-ए-दिल-दार ने सोने न दिया
यास से आँख भी झपकी तो तवक़्क़ो से खुली
सुब्ह तक वादा-ए-दीदार ने सोने न दिया
ताला-ए-ख़ुफ़्ता की तारीफ़ कहाँ तक कीजे
पाँव को भी ख़लिश-ए-ख़ार ने सोने न दिया
दर्द-ए-दिल से जो कहा नींद न आई तो कहा
मुझ को कब नर्गिस-ए-बीमार ने सोने न दिया
शब-ए-हिज्राँ ने कहा क़िस्सा-ए-गेसू-ए-दराज़
‘शेफ़्ता’ को भी दिल-ए-ज़ार सोने न दिया