गोलार्द्धों में बँटी पृथ्वी / नील कमल
एक माँग है, स्वर्ण रेखा-सी
कि सूनी सड़क एक, रक्ताभ समय जिसपर
चहलकदमी करता काले बादलों में
दो आँखें हैं डबडबाई-सी
कि अतलान्त का खारापन
असंख्य स्वप्न सीपियाँ जगमगातीं जहाँ
रूपहले पानी में
दो उभार हैं वक्ष पर
कि श्वेत कपोत युगल
पंख तौलते आसमान में,
कि दूध के झरने, नवजातक के होंठ सींचते
कि बीहड़ एक घाटी, गुज़रती उफ़ान खाती
नदी हहराती जहाँ से
यहाँ हथियार डालते हैं
दुनिया के सबसे पराक्रमी योद्धा,
भू-लुण्ठित होती हैं यहाँ
विश्वविजेताओं की पताकाएँ,
यह इस पृथ्वी का
वह भू-भाग है जहाँ
खोए हुए बसन्त के
सारे फ़ूल , अपनी वेणी में
गूँथ लेना चाहती है एक लड़की
हे पूर्वज कवि कालिदास,
तुम्हारी शकुन्तला तो नहीं यह
भटकती किसी दुष्यन्त के लिए
यह भगीरथ की बेटी है
दो गोलर्द्धों में बँटी पृथ्वी, अपनी छाती पर उठाए ।