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गोल रोटी / राकेश पाठक
Kavita Kosh से
रोज साँझ के चूल्हे पर
धधकती है थोड़ी आग
जलती है रूह और
खदबदाती है थोड़ी भूख
यह भूख पेट और पीठ के समकोण में
उध्वार्धर पिचक गोल रोटी का रूप धर लेती है
इस रोटी के जुगत में
बेलन और चकले का समन्वय बस इतना होता है कि
ऐंठती पेट में निवाले की दो कौर से
अहले सुबह रिक्शे द्रुत गति से दौड़
फिर किसी ज़हीन को खींच रहे होंगे !