गो मेरी ज़िन्दगी का ये चौथा पड़ाओ है / रमेश तन्हा
गो मेरी ज़िन्दगी का ये चौथा पड़ाओ है
फिर भी न जाने क्यों मुझे जीने की चाओ है।
क्या जाने किस की सोच है, किस का सुझाओ है
सीने पे ये अदम के जो हस्ती का घाओ है।
क्या नखवतों, नज़ाकतों का रख-रखाओ है
दोनों में कुछ तो बात है जो मन-मुटाओ है।
यूँ आइनों को देख के हैं बद-हवास लोग
जैसे कि उनकी रूह पे कोई दबाओ है।
क्या जाने किस गुनाह का साया है शहर पर
हर आदमी के ज़ेहन में कितना तनाव है।
माना कि हर किसी से खिंचा सा फिरे है वो
फिर उसका ये मिरी ही तरफ क्यों झुकाओ है।
आग़ाज़ की खबर न कुछ अंजाम का पता
दरिया-ए-ज़िन्दगी में ग़ज़ब का बहाओ है।
हर रोज़-ए-ज़िन्दगी की अमीं भी तो है यही
बहर-ए-हयात में जो ये टूटी सी नाओ है।
बे-दर्द-ओ-बेमुरव्वत-ओ-बेहिस हैं लोग क्यों
ना-साज़गारियों से ये कैसा बचाओ है।
वो क्या किसी के दर्द में होगा शरीक़-ए-हाल
जिस के ख़मीर ही में बसा भेद-भाओ है।
शामिल है देना मौत भी इस की अदाओं में
ये ज़िन्दगी का शौक़ है, यह इसका चाओ है।
इंसानियत के खून पे रोयेगा वो ज़रूर
इंसानियत से जिसको ज़रा भी लगाओ है।
फिर ऐसी ज़िन्दगी का ऐ 'तन्हा' मलाल क्या
जिसका वजूद कुछ भी नहीं चल-चलाओ है।