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गो मैं तेरे जहाँ में ख़ुशी खोजता रहा / जगदीश रावतानी आनंदम

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गो मैं तेरे जहाँ में ख़ुशी खोजता रहा
लेकिन ग़मों-अलम से सदा आशना रहा

हर कोई आरजू में कि छू ले वो आसमाँ
इक दूसरे के पंख मगर नोंचता रहा

आँखों में तेरे अक्स का पैकर तराश कर
आइना रख के सामने मैं जागता रहा

कैसे किसी के दिल में खिलाता वो कोई गुल
जो नफरतों के बीज सदा बीजता रहा

आती नज़र भी क्यूं मुझे मंजिल की रोशनी
छोडे हुए मैं नक्शे कदम देखता रहा

सच है कि मैं किसी से मुहव्बत न कर सका
ता उम्र प्रेम ग्रंथ मगर बांचता रहा