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गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है / शाह 'नसीर'
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गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है
शक्ल-ए-साया के मुझे साथ लगा लेता है
तू वो है नाम-ए-ख़ुदा ऐ बुत-ए-काफ़िर कि तिरे
ज़ाहिद-ए-काबा-नशीं भी क़दम आ लेता है
दिल पे तलवार सी कुछ लगती है जब ग़ैर को तो
पास अबरू के इशारे से बुला लेता है
क्यूँ न फूले दिल-ए-सद-चाक हमारा यारो
गुल समझ कर वो उसे सर पे चढ़ा लेता है
मौज-ए-दरिया तू कब अठखेली से यूँ चलती है
पर तिरी कब्क-दरी चाल उड़ा लेता है
ज़ुल्फ-ए-मुश्कीं को न छेड़ उस की दिला मान कहा
अपने क्यूँ सर पे बला अहल-ए-ज़फा लेता है