गौतम, तुमने जीवन से भी छल किया / संजय तिवारी
अंग नरेश,
महायोद्धा?
दानवीर,
धर्मनिष्ठ,
तेजोमय सूर्यपुत्र,
ज्येष्ठ कुंती नन्दन,
कौंतेय,
कर्ण या राधेय
या कि सूत अधिरथ
राधा माता का प्रिय
वसूसेना या कि
राधेय
क्या मानता
कैसे खुद को जानता
जो था पांडव में ज्येष्ठ
सभी से श्रेष्ठ
पर
पूरे जीवन केवल अपमान पीता रहा
मर मर कर जीता रहा
आचार्य द्रोण ने सूत कह कर दुत्कारा
गुरु परशुराम ने क्षत्रिय के रूप में पहचाना
और कर दिया त्याग
उसके भीतर की आग
जला सकती थी सृष्टि को
रोक सकती थी नभ वृष्टि को
कुंती जिसकी माता
नभस्वामी जिसके पिता
याद करो वह युद्ध
अपनों के विरुद्ध
फिर भी उसने किये युद्ध का ही गायन
तुम्हारी तरह
नहीं किया पलायन
माता की पीड़ा
धर्मराज की आँखों में
सरस्वती की वीणा
झंकृत हो उठा हर तार
अपनों का अपनों पर
अविरल वार
याद आ गयी देवराज की माया
गंगा तट पर कुंती की काया
कवच और कुण्डल का दान
अद्भुत था अभिमान
नारी जाति को उसी का है शाप
गुप्त से गुप्त भी खुल जायेगा अपने आप
जब निहत्थे पर उठे अनुज अर्जुन के हाथ
ह्रदय चीख कर दे रहा था उसी का साथ
अर्धखुले, अश्रुपूर्ण नयनों में कैसी रेखा
फिर भी भ्राता को प्रेमपूर्ण नयनों से देखा
कैसा तेज कैसी वेदना
रक्त के साथ रक्त की चेतना
जीवित कर्ण को
वितृष्णा की दृष्टि से देखनेवाले
धर्म और न्याय के भी रखवाले
पांडव उस के शव को पाने
और अंतिम संस्कार
करने के लिए व्याकुल थे
अंग अंग
अंग नरेश को छूने के लिए आकुल थे
कौरव भी लेना कहते थे उसकी देह
वैसा ही था नेह
वह हार कर भी जीत चुका था
महाभारत का रण बीत चुका था
धरती पर रोती थी माता
आकाश में मलिन थी पिता की देह
रश्मियां भी लिपट रही थी लेकर नेह
वह योद्धा ही नहीं सनातन का सम्मान था
जीवन का स्वाभिमान था
जीवन को जी लेना ही उसका अभिमान था
बहुत वीर था
बहुत बलिदानी था
दुःख पीता था
महा दानी था
काश कि तुम भी कर्ण को जानते
खुद को भी क्षत्रिय मानते
जीते मेरे साथ
भर पाते प्रजा के हाथ
तुमने ऐसा कुछ भी नहीं किया
गौतम? तुमने जीवन से भी छल किया।