गौरये का घर / शिवशंकर मिश्र
गौरैया-
एक नर
और एक मादा
फागुन जो आया
तो जोड़ा जा बाँधा
चैत चढ़े
चिंतित, अधीर कढ़े
स्वतर:
बच्चेत रहेंगे कहाँ ?
कहाँ होगा घर ?
पास ही
बाबा का झोपड़ था एक
छप्प र में डाले थे
बल्लेक अनेक धूमिल और धूसर
सब देख- भालकर
बोला था नर:
यहीं हम बनाएँगे
अपना भी घर।
हामी भरी मादा ने
उल्लसित, हँसकर
बोली थी मृदुतर:
औचक के पानी की चोट से
धूप और ओस से
उन्मद बयारों की मार से
पत्थर से और पतझार से
संकट से सारे बचेंगे
होकर निरापद
सुख से रहेंगे
पालेंगे बच्चों को
हम अंडे देंगे।
चुन-चुनकर
चोंच में डालकर
कहाँ –कहाँ से लाया
एक-एक खर
बाहरी ओसारे के
भीतरी किनारे पर
अलग एक कोने में
जुड़े दो बल्लों के ऊपर
सटकर दीवार से
जोड़ा ही था घर
पड़ गयी तभी वहीं
बाबा की उड़ती नजर।
वहीं खड़ी लाठी से
खोद-खुचकारकर
बाबा ने गिरा दिया
गोरैये का घर
पल में सब बिखर गया
झर-झरकर
देखकर
बाबा की पत्नी ने
राहत की साँस ली
पास आ बोलीः
ठीक किया, गिरा दिया
जैसे निर्लज्ज हैं
वैसे ही थेथर!
साथ लगी कोठरी में
बाबा की नन्हीं-सी बिटिया
देख रही थी सब
दृष्टि बाँध टुकर-टुकर
छिपकर
कैसा तो जी उस का हो आया!
बाहर ओसारे के
चीं-चीं का विकलस्वर
सुनकर
दिल उस का थम गया
अदृश्य, अतरल कुछ आँखों में
ठहर गया, जम गया!?
कहाँ अब जाएँगे ये?
घर अब अपना
कहाँ जा बसाएँगे ये?
क्या होगा इन का?
क्या इसी अंत को
इतना था किया श्रम?
रात-दिन
जोड़ा था एक-एक तिनका?