गौरीबाई / सन्तोष सिंह बुन्देला
मिठउवा है ई कुआ कौ नीर,
छाँयरी पीपर कौ गंभीर,
मिटा ले तनिक घाम की पीर, ओ पानी पीले गैलारे,
तनिक बैठ के तुम सुस्ता लेव, जानै फिर जा रे।
क्वाँर कौ घामौ हे,
औ सूरज सामौ है।।
को ठाकुर तुम आए कितै सें, और तुम्हें काँ जानें,
मोखाँ ऐसौ लगत, होव तुम जैसें जानैं-मानैं,
पसीना बैठौ बिलमा लेव,
और दो-दो बातें कर लेव,
न आँगें पानी मिलै पसेव, हौ प्यासे मजलन के मारे।
और हम का करिए सत्कार,
गाँव के मूरख अपढ़ गँवार,
गड़ई भर जल हाजिर,
करै तुम खाँ सादर।।
हम तौ हैं ग्वालन की बेटी, हार-पहारन रइए
गइयन-बछलन सें बाबू जी, मन की बातें कर लइए,
हमारे गुइयाँ छ्योल-सगौन
करै बातैं हम बे रएँ मौन,
दुक्ख मन कौ जानत है कौन, रहैं मन ऐसइँ समझा रे।
आज जानें का मन में आई, और तुमसें इतनी बतयाई।।
लाज सब टोरी है,
करी मुँहजोरी है।।
माँजी गड़ई निकारो गगरा जब बा पानी ल्याई,
मैंने पूछौ- ‘नाव तुम्हारौ’, बोली- ‘गौरीबाई’,
न देखे ऐसे निछल सनेह
जा मैंने जब सें धरी है देह,
उमड़ आए आँखन मैं मेह, तौ टेढ़ौ मुँह करकै टारे।
बोली ‘तुम-सौ लम्बौ ज्वान, हतो भइया मोरौ मलखान।
पुलिस नें माड़ारो;
दुखी घर कर डारो।।’
फिर मैं बोलो, ‘बिन्ना तौरौ ब्याव भओ कै नइयाँ?’
झुक गए नैन, तनिक मुसक्यानी, फिर भर दई तरइयाँ,
तुरत मैं बोलो-‘गौरीबाई,
आज सें मैं हौं तोरौ भाई’
नेह की नदिया-सी भर आई, खुसी सैं नैना कजरारे।
चूम लए मैंने ऊकैं पाँव, बताओ अपनौ नाँव औ गाँव,
और बा लिपट्याई,
फिर बोली हरखाई।।
‘मोरी उमर तुमैं लग जाबै, भाभी रहै सुहागन,
दूधन-पूतन फलौ, खेलबैं चन्दा-सूरज आँगन,
लौट आई मोरे घर दोज
मनाहौं मैं अब सावन रोज,
मोरी जनम-जनम की खोज, करो तुम पूरी भइया रे।
रहत तो औरन के मन भार, बिना सारे की है ससुरार।।
दुक्ख सब मिट गए हैं,
कैं भइया मिल गए हैं।।’