गौरैया / महेन्द्र भटनागर
बड़ी ढीठ है,
सब अपनी मर्ज़ी का करती है,
सुनती नहीं ज़रा भी
मेरी,
बार-बार कमरे में आ
चहकती है ; फुदकती है,
इधर से भगाऊँ
तो इधर जा बैठती है,
बाहर निकलने का
नाम ही नहीं लेती !
जब चाहती है
आकाश में
फुर्र से उड़ जाती है,
जब चाहती है
कमरे में
फुर्र से घुस आती है !
खिड़कियाँ-दरवाजें बंद कर दूँ ?
रोशनदानों पर गत्ते ठोंक दूँ ?
पर, खिड़कियाँ-दरवाज़े भी
कब-तक बंद रखूँ ?
इन रोशनदानों से
कब-तक हवा न आने दूँ ?
गौरैया नहीं मानती।
वह इस बार फिर
मेरे कमरे में
घोंसला बनाएगी,
नन्हें-नन्हें खिलौनों को
जन्म देगी,
उन्हें जिलाएगी.... खिलाएगी !
मैंने बहुत कहा गौरैया से —
मैं आदमी हूँ
मुझसे डरो
और मेरे कमरे से भाग जाओ !
पर, अद्भुत है उसका विश्वास
वह मुझसे नहीं डरती,
एक-एक तिनका लाकर
ढेर लगा दिया है
रोशनदान के एक कोने में !
ढेर नहीं,
एक-एक तिनके से
उसने रचना की है प्रसूति-गृह की।
सचमुच, गौरैया !
कितनी कुशल वास्तुकार हो तुम,
अनुभवी अभियन्ता हो !
यह घोंसला
तुम्हारी महान कला-कृति है,
पंजों और चोंच के
सहयोग से विनिर्मित,
तुम्हारी साधना का प्रतिफल है !
कितना धैर्य है गौरैया, तुममें !
इस घोंसले में
लगता है —
ज़िन्दगी की
तमाम ख़ुशियाँ और बहारें
सिमट आने को आतुर हैं !
लेकिन ; यह
सजावट-सफ़ाई पसन्द आदमी
सभ्य और सुसंस्कृत आदमी
कैसे सहन करेगा, गौरैया
तुम्हारा दिन-दिन उठता-बढ़ता नीड़ ?
वह एक दिन
फेंक देगा इसे कूडे़दान में !
गौरैया ! यह आदमी है
कला का बड़ा प्रेमी है, पारखी है !
इसके कमरे की दीवारों पर
तुम्हारे चित्र टँगे हैं !
चित्र —
जिनमें तुम हो,
तुम्हारा नीड़ है,
तुम्हारे खिलौने हैं !
गौरैया ! भाग जाओ,
इस कमरे से भाग जाओ !
अन्यथा ; यह आदमी
उजाड़ देगा तुम्हारी कोख !
एक पल में ख़त्म कर देगा
तुम्हारे सपनों का संसार !
और तुम
यह सब देखकर
रो भी नहीं पाओगी।
सिर्फ़ चहकोगी,
बाहर-भीतर भागोगी,
बेतहाशा
बावली-सी / भूखी-प्यासी !