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गौर से देखा होता कभी / रश्मि विभा त्रिपाठी

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गौर से देखा होता कभी
मेरी आँखें—
सर्द स्याह रात के बाद
निकली
भोर की पहली किरण
पलकें उठतीं
तो मिलती गुनगुनी- सी धूप
ठिठुरता तन गरमाता

आँखों में सपनों के बादल
घुमड़ते
अवसाद का ताप
मिट्टी में समाता

आँखों में
नेह का सावन
बरसता तेरी हथेली पर
हरियाली की
फसल उगाता

तेरे होठों पर भी था
पतझड़ के बाद का
बसंत
मदमाता
लफ़्ज़ों के खिलते फूल
तो रिश्ते का ठूँठ
लहलहाता

तूने लगाया होता
सोच का रंग प्यारा
मेरा मन तो
कबसे था हुरियारा

अहसास की पुरवाई
तुझे छू पाती
खोली होती अगर
तूने अपनी आत्मा की खिड़की कभी
तूने बंद रखे खिड़की- दरवाज़े
महसूस ही नहीं किया कभी
जो कर पाता
तो जानता
कि
ज़िन्दगी खुद एक ख़ुशनुमा मौसम है
तू खोया रहा
वक्त के मौसम में
सोचा कि लौटेगा एक दिन तू
उसके रंग में रँगकर
मगर
सीखा भी तूने तो क्या सीखा
वक्त के मौसम से—
मौसम की तरह बदल जाना
जबकि वह बदलना था ही नहीं, नहीं दीखा?
वह था—
एक के आने पर दूसरे का उसे
पूरी कायनात सौंप देना
और खुद को
उसके लिए गुमनाम कर देना
यही दोहराता आया है क्रम
एक दूसरे के लिए हर बार हर मौसम।
मौसमों का बदलना प्यार है—
सच्चा प्यार!
अफ़सोस
मौसम जानता है
प्यार क्या है?
इंसान को नहीं पता
इतना जहीन होकर भी।
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