भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग्यारह नम्बर की सवारी तो है / रिचर्ड ग्रीन / यादवेन्द्र
Kavita Kosh से
अब मैं पैदल चलता हूँ
साइकिल नहीं चलाता
अस्सी साल का हुआ तो
बीवी ने ले ली मेरी साइकिल ।
अब तुम खासे बूढ़े हो गए हो
साइकिल छूनी नहीं, वह बोलती है ।
मेरे बस का नहीं है कि तुम गिर-पड़ जाओ
और अपनी हड्डियाँ तुड़ा लो
तो मैं तुम्हारी परवरिश कर पाऊँ....
अब साइकिल को बाय-बाय।
इतने साल मैंने साइकिल चलाई
पर अब सब कुछ ख़तम
साइकिल चलाने का टिकट
वापस ले लिया गया मुझसे
पर मुझे इसकी कोई परवाह नहीं
साइकिल चलाने वाला रास्ता तो
कहीं नहीं गया, अब भी है
मेरे हाथ-पाँव चलते हैं
1895 में जन्मे अपने पिता की तरह
वे कहते थे : साइकिल न सही
ग्यारह नंबर की सवारी तो है मेरे पास
उसपर चढ़ कर घूम लूँगा ।
( कविता का एक हिस्सा)
अँग्रेज़ी से अनुवाद : यादवेन्द्र