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ग्यारह सौ गज नीचे / चंद्रभूषण

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कोयले की खान में गहरे उतरो तो
एक अलग सी तनहाई
अपने भीतर उतरती देखते हो
सिर पर चढ़ी टोप-लाइट
रोशनी का एक लंबोतरा वृत्त
तुम्हारे आगे फेंकती है
बस उतनी ही तुम्हारी दुनिया होती है

लोग साथ होते हैं, पर नहीं होते
दो-एक रोशनियाँ अपने इर्द-गिर्द देखकर
तुम सोचते हो
कि तुम अकेले नहीं हो
लेकिन असल में यहाँ कोई
किसी के साथ नहीं है
सभी जानते हैं कि यहाँ सभी अकेले हैं
और इस बात का कोई दार्शनिक अर्थ नहीं है

कोयले की खान में जाते हुए
सिर्फ़ पीछे छोड़कर
तुम्हारे दाएँ-बाएँ ऊपर-नीचे
और आगे भी सिर्फ़ कोयला है
उसी की दीवारें उसी की छत उसी का फ़र्श
और जिस जगह पहुँचकर खान बंद हो रही है
उसे ढहने से बचाने के लिए
सैकड़ों बल्लियों पर टाँगकर रखा गया है

बीच-बीच में जब दबाव बढ़ता है
तब बल्लियाँ गरम हुई भैंस की तरह रंभाती हैं
अपनी आधी उम्र खान में गुजार देने वाले भी
उनका चरचराना सुनकर
कई क़दम पीछे खिसक जाते हैं
क्योंकि ज़मीन से ग्यारह सौ गज नीचे
घात लगाए मौत के लिए
न कोई प्रधानमंत्री है न कोई पल्लेदार

कोयले की खान में
धीरे-धीरे इंसान और कोयले का
फ़र्क मिटता जाता है
तुम्हें पता भी नहीं चलता कि
खान में उतरते-उतरते तुम
अपने भीतर कैसे उतर गए-
और क्या हाल है कि
वहाँ भी सिर्फ़ कोयले के ढोंके दिखते हैं

कोई कहता है-
चलिए, टाइम हो गया
टाइम हो गया ?
जी, सिर्फ़ आधे रास्ते की बैटरी बची है
उसकी मद्धिम अफ़सुर्दा रोशनी की तरफ़
देखते हुए तुम ख़ुद से बाहर आते हो,
पाते हो कि तुम्हारे और कोयले के सिवा
संसार में कहीं कुछ और भी है ।