ग्रहण / बुद्धिनाथ मिश्र
शहरी विज्ञापन ने हमसे
सब-कुछ छीन लिया ।
आंगन का मटमैला दर्पण
पीपल के पत्तों की थिरकन
तुलसी के चौरे का दीया
बारहमासी गीतों के क्षण
पोखर तालमखाने वाला
नदियाँ गहरी पानी वाली
सहस्रबाहु बरगद की छाया
झाड़ी गझिन करौंदे वाली
हँसी जुही की कलियों जैसी
प्रीति मेड़ की धनियाँ जैसी
सुबहें--ओस नहाई दूबें
शामें-- नई दुल्हनिया जैसी
किसने हरे सिवानों का
सारा सुख बीन लिया ?
मन में बौर संजोकर बैठी
गठरी जैसी बहू नवेली
माँ की बड़ी बहन-सी गायें
बैलों की सींगें चमकीली
ऊँची-ऊँची जगत कुएँ की
बड़ी-बड़ी मूँछे पंचों की
पेड़-पेड़ धागे रिश्तों के
द्वार-द्वार पर रोशनचौकी
खेल-खेल कर पढ़ते बच्चे
खुरपी खातिर लड़ते बच्चे
दादा की अंगुली पकड़ कर
बाग-बगीचे उड़ते बच्चे
यह कैसा विनिमय था
पगड़ी दे कौपीन लिया!
शहरी विज्ञापन ने हमसे
सब कुछ छीन लिया ।
रोशनचौकी=ख़ुशियों के मौके पर बजाया जाने वाला एक पुराना वाद्य
खुरपी=घास छीलने का औजार
कौपीन=लंगोटी
(रचनाकाल:28.05.2000)