भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग्रहण / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज मेरे सरल चांद को किस

ग्रहण ने ग्रसा है ?

आज कैसी विपद में विहंगम

गगन का फँसा है ?

मौन वातावरण में बिखरतीं

उदासीन किरणें,

रंग बदला कि मानों उठी हो

घटा घोर घिरने !

दूर का यह अँधेरा सघन अब

निकट आ रहा है,

गीत दुख का, बड़ी वेदना का

पवन गा रहा है !

अश्रु से भर खड़े मूक बनकर

सभी तो सितारे,

हो व्यथित यह सतत सोचते हैं

कि किसको पुकारें ?

साथ हूँ मैं सुधाधर तुम्हारे

मुझे दुख बताओ,

हूँ तुम्हारा, रहूँगा तुम्हारा

न कुछ भी छिपाओ !