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ग्रह / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल

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इस ग्रह के कोई नहीं हो तुम लगता यह रहता।

मेघों में आलोक। पर्वत की गोद में
हाथों में लिये हुए बैठे हो हरी-हरी रेखाएँ
चाहूँ मैं मुझको ही घेरकर तुम्हारा भी
छाया पथ जाग उठे।

आँखों में सुश्रुवा का भाव जो तुम्हारी
वह आकर समा जाए मेरे शरीर में
बूँद एक बनकर।

फिर तुम बचे कहाँ !
तुम हो बस माटी में पत्थर में
घास के ऊपर सिहरता वृष्टि जल
इस ग्रह के कोई नहीं हो तुम
फिर भी यह ग्रह है तुम्हारा।

मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)