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ग्रामीण / सुमित्रानंदन पंत

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‘अच्छा, अच्छा,’ बोला श्रीधर
हाथ जोड़ कर, हो मर्माहत,
‘तुम शिक्षित, मैं मूर्ख ही सही,
व्यर्थ बहस, तुम ठीक, मैं ग़लत!
‘तुम पश्चिम के रंग में रँगे,
मैं हूँ दक़ियानूसी भारत,’
हँसा ठहाका मार मनोहर,
‘तुम औ’ कट्टर पंथी? लानत!’
‘सूट बूट में सजे धजे तुम
डाल गले फाँसी का फंदा,
तुम्हें कहे जो भारतीय, वह
है दो आँखोंवाला अंधा!
‘अपनी अपनी दृष्टि है,’ तुरत
दिया क्षुब्ध श्रीधर ने उत्तर,
‘भारतीय ही नहीं, बल्कि मैं
हूँ ग्रामीण हृदय के भीतर!
‘धोती कुरते चादर में भी
नई रोशनी के तुम नागर,
मैं बाहर की तड़क भड़क में
चमकीली गंगा जल गागर!’
‘यह सच है कि,’ मनोहर बोला,
‘तुम उथले पानी के डाभर,
मुझको चाहे नागर कह लो
या खारे पानी का सागर!’
‘तुमने केवल अधनंगे
भारत का गँवई तन देखा है,
श्रीधर संयत स्वर में बोला,
मैंने उसका मन देखा है!’
‘भारतीय भूसा पिंजर में
तुम हो मुखर पश्चिमी तोते
नागरिकों के दुराग्रहों
तर्कों वादों के पंडित थोथे!
‘मैं मन से ग्रामों का वासी
जो मृग तृष्णाओं से ऊपर
सहज आंतरिक श्रद्धा से
सद् विश्वासों पर रहते निर्भर!
‘जो अदृश्य विश्वास सरणि से
करते जीवन सत्य को ग्रहण,
जो न त्रिशंकु सदृश लटके हैं,
भू पर जिनके गड़े हैं चरण!
‘उस श्रद्धा विश्वास सूत्र में
बँधा हुआ मैं उनका सहचर
भारत की मिट्टी में बोए
जो प्रकाश के बीज हैं अमर!’