भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग्रीष्म ऋतु / प्रेम प्रगास / धरनीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौपाई:-

ग्रीष्म ऋतु जब आयउ पासा। तब सुन्दरि मन अधिक उदासा॥
जौंरे निकट होत पिया मोरा। तो अत दिन नहि लावत भोरा॥
मैं जग जियऊं कवन यश लेऊं। प्राणहि प्राणपती पथ देऊं॥
विनु प्रीतम जीवन केहि राजा। सेना सकल कहा विनु राजा॥
मोहि जग जनमि कवन भौं चाहा। इतकी भई न उतही पाहा॥

विश्राम:-

रोवति अति पथ जोहती, निशि दिन वितवति ईश।
दोष न देती काहु कंह, जानि अंक जगदीश॥202॥

अरिल:-

ग्रीषम विषम संताप, कामिनिहि देखिये।
बिनु गुनि खेवनहारा, पार किमि लागिये।
सांझहि चोर प्रचंड कहा लगि जागिये॥

कुंडलिया:-

रोवति उठती बैठती, निराधार सो नारि।
चिन्तातुर हतमतिभई, शोचति पंथ निहारि॥
शोचति पंथ निहारि, टारि दिन सकै न वाला॥
ऊपर प्रेम प्रकाश, सूर भितर वारह काला।
कुसुम सरिस सुकुमारि, नींद पल सक न सोवति।
चिंहुकि चिंहुकि गिरि परति, उठति पुनि हियधरि रोवति॥

सवैया:-

ग्रीषम देखि दशा धनि को, सुनु मोसन सांच कुलीन कुमारा।
रोवति औ पथ जोहति मोहित, सोवति खति न खेलति वारा॥
तापर सूर को तेज कछू, कहि जात नहिं जगदीश उवारा॥
लोन कि मूरति पानि भई, गलि पानि चलो धरनी एक धारा॥

सोरठा:-

ग्रीषम सूर को तेज, असुर न सुर कोउ कहि सकै।
केतक नारि करेज, जरै जो प्रीतम छाखी॥