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ग्रीष्म की रातें / वीक्तर हिगो / हेमन्त जोशी
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ग्रीष्म में रवि ढले जब, पुष्पाच्छादित वाटिका
बिखेरती सब ओर असीमित अपनी मादक-गन्ध
बन्द हों दृग-द्वार, मात्र हो आभास किसी शब्द का
अधखुले से नयन सोएँ, आती है निद्रा मन्द-मन्द
स्वच्छ और निर्मल हों तारे, छाया हो पहले से बेहतर
आर्ध-दिवस-सी, संध्या की छाया मानो गगन को भींचे
और प्रतीक्षारत है जैसे प्रात सुनहरी और मनोहर
लगता निशा भटकती जैसे, दूर कहीं अब नभ के नीचे
मूल फ्राँसीसी से अनुवाद : हेमन्त जोशी