ग्रेपवाइन / रश्मि भारद्वाज
बातों की पाँखों पर दुनिया का बसेरा
बातें जो डैनें फैलातीं
तो पल दो पल सुस्ताती मुण्डेर पर
फिर जा पसरती गिरजी चाची की खटिया पर
सूखती मिरचाई के संग
तीखी, लाल, करारी हो उठती
बच्चू बाबा के हुक्के में घुसती
धुएँ के नशे में मदमस्त हो जाती
वे बाते कनिया चाची के चूल्हे पर
खदबद खौलती
सिलबट्टे पर धनिया, गरम मसल्ले के साथ पिसती
चटकार हो जातीं
बूढ़े वामन-सा सीमान्त पर खड़ा
प्रहरी बरगद
मुस्काता मन ही मन
जब लाल मौली-सी मीठी, मनुहारी बातें गुपचुप
बन्ध जाती उसके कठोर तन पर
नइकी कनिया के पैर में काँटा चुभा
या कि पीपल पेड़ वाला जिन्न घुसा था
पेड़ पर बैठा जिन्न आँखें तरेरता
हमरा नाम बहुत बदनाम करती हो
अगली बार आना चाची पीपल के गाछ तले
अब कि तुमको ही धरता हूँ।
तब चाची के पेट में मरोड़ उठा था
बातें थी कहनी कथाओं में ढलतीं
सामा चकेवा की मूरत में सिरजतीं
वे लोकगीतों के बोलों में घुलती
कण्ठ-कण्ठ दर्द, विरह, प्रेम बरसता
खेतों में जो गिरतीं सोना उगलतीं
तालों और कुओं पर झमकती
घोघो रानी!
अहा कितना पानी
कमर तक पानी, गले भर बतकहियाँ
रात को जो भूले से चनेसर मामी रस्सी पर पैर रख आती
साँप-साँप कहके टोला जगाती
कोकिला बंगाल से आई करिया जादूगरनी है
मरद-मानुष को भेड़ा बनाती है
माधोपुर वाली बुढ़िया डायन है
बच्चे चबाती है
सेमर के फूल-सी
धतूरे के बीज-सी
फन काढ़े नागिन-सी
बिन खाए ब्राह्मण-सी
लेकिन वे बातें थीं जिनसे जीवन टपकता था
क़िस्से-कहानी, राग-रंग, सावन
कई बरस बीते जाने कहाँ गुम गईं बातें
खेत-खलिहान सूखे, ताल-तलैया रोईं
अब बातें अक्सर मिलती है
कुएँ की तली में गँधाती,
पेड़ से लटकती,
बेआवाज़ पछाड़ें खातीं
सुना किसी ने कहा कि
यह भी बस एक अफ़वाह है
बातें भी कहीं भूख से मरी हैं!