घटना नहीं / ब्रजेश कृष्ण
हिन्दुस्तान के भीतर
किसी कस्बे के जर्जर कांपते मकान में
सारी दुनिया से
उदासीन, निर्विकार, निर्लिप्त पिता
और हर समय बड़बड़ाती रहने वाली मां की
तीसरी संतान के रूप में मेरा जन्म
दो अरब दोपायों में
मामूली इजाफे के अलावा,
किसी के लिए, कोई कतई घटना नहीं थी
क्योंकि मेरे पिता का नाम
मोतीलाल नहीं बल्कि अ ब या स था।
यह मात्र संयोग है
कि मेरी और आजादी की उम्र एक है
अपने ढंग से व्यतीत होते हुए
और बेवजह बढ़ते हुए
आज मैं वहां आ पहुंचा हूं
जहां नक्शे का कोई अर्थ नहीं होता
जहां दिशाएं, सूरज और नदी नहीं होती।
गलत बढ़ आए कदमों को लौटाने
जितनी बार मैंने पीछे देखा
सामने एक भयावह और बीहड़ जंगल पाया
इसीलिए आगे चलना
मेरा उत्साह नहीं, लाचारी थी।
अपनी आंख, जीभ और हथेलियां उन्हें सौंपकर
सूजे पांव, कटे हाथ और अधूरी कविताएं लिए
मैं खुद का बुत में बदलना देखता हूं।
बाहर ‘कृपया शांत रहें’ की तख्तियां
लटकाकर
भीतर हुल्लड़ कर रहे हैं,
उनकी लड़ाई मेरी
आंख, जीभ और हथेलियों के
बंटवारे को लेकर है।
इसीलिए
इसीलिए मैं लगातार चीखता हूं
और अपने जंगलों में खो जाता हूं
बगैर यह याद रखे कि
अभी-अभी गुजरे क्षण में
मैं निरर्थक चीखा था।
लेकिन इससे क्या होगा?
सिवा इसके
कि असंख्य सर्वनामों के बीच
जीता हुआ मैं
अपने पीछे आने वाले को
यह कहने छोड़ जाऊंगा
कि उसके पिता का नाम
अ ब या स था और वह
अधूरी कविताएं लिए मर गया।