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घटाते क्यूँ हो मेरा क़द मेरी आवाज़ नक़ादू / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
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घटाते क्यूँ हो मेरा क़द मेरी आवाज़ नक़ादू
कभी सच बोलना सीखो नजरिया साज़ नक़ादू
हकीकत भी सर आँखों पर है जिदत भी सर आँखों पर
मगर एक शै लताफत भी है नारेबाज़ नक़ादूं
हर एक सच्चाई को तक़सीम कर देते हो खानों में
हर एक नुदरत को करते हो नज़र अंदाज़ नक़ादूं
कई सदियों से किस कि गूँज है हिंदुस्तान भर में
सुना तुमने ग़ज़ल के दुश्मनों, तनाज़ नक़ादूं
मगर ताज़ा हवा से वास्ता तुम ने नहीं रखा
परूं से मस्लेहत के मायल परवाज़ नक़ादूं
दयानत खून बन कर दौडती है उसकी बातों में
इसी में है मुज़फ्फर कि ग़ज़ल का राज़ नक़ादूं