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घटा ने चाँद को छेड़ा / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
घटा ने चाँद को छेड़ा सिहर लो चाँदनी उट्ठी
तुम्हारी याद आयी तो जिगर में आग सी उट्ठी
कहा बरसात ने आओ जरा सा भीग भी जाओ
पड़ी जब बूँद चेहरे पर शज़र को गुदगुदी उट्ठी
लताएँ थरथरायीं हैं सिहरते फूल उपवन के
कली अंगड़ाइयाँ लेती भ्रमर को झुनझुनी उट्ठी
हिला जब घोंसला नन्ही बया अंडों पे जा बैठी
प्रभंजन ने दिया झोंका चहकती झूमती उट्ठी
रही शरमा दुल्हन देखो टिकी हैं भूमि पर नज़रें
झलक घूँघट से चेहरे की महकती रौशनी उट्ठी
गगन की ओढ़ कर चादर थी सोयी पुष्प शैया पर
हिलाया भोर ने कन्धा चिहुँक कर यामिनी उट्ठी
हवाओं का सहारा ले थी उड़ती नील अम्बर में
जलद की टेर को सुनकर घटा गजगामिनी उट्ठी