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घड़ियाँ नहीं सोचती / अनुभूति गुप्ता
Kavita Kosh से
घड़ियाँ नहीं
सोचती हैं
टिक-टिक करने से पहले
उनकी नियति में हैं
हर किसी को
सही समय बतलाना
वो..
नहीं देखती हैं
अमीरी-ग़रीबी को।
जिस क्षण
चुप्पी भर लेंगे
इन घड़ियों के काँटंे
उसी क्षण
समझ जाना
रातों रात
ज़िन्दगी बदल जायेगी
सबकुछ
उथल-पुथल हो जायेगी।
हरी-भरी धरती
त्रास से भर जायेगी।
घाटियाँ
चीखेंगी
चिल्लायेंगी
पक्षियों का रूदन सुनायी देगा।
समुद्र के गले से
चीखें
ऊपर की ओर उठेगी,
ज्वाला मुखी
आक्रोश से फटेगा।
नदियाँ बाढ़ ले आयंेगी।
शहर के टॉवर
सभी मीनारें
गाँव के खेत-खलियान
सब डूब जायेंगे।
माहमारी से
लोग मरने लगेंगे।
और
मन को समझाना
कठिन होगा
कि
दुनिया का अन्त
बहुत नज़दीक होगा।