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घण्टी की तरह बज उठता है हर आदमी / दिनकर कुमार

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घण्टी की तरह बज उठता है हर आदमी
अभाव और असुविधा के नगर में उमस
और घुटन से गुज़रते हुए अक्सर चौराहे पर
वाहनों की लम्बी कतार में जर्जर सिटी बस के भीतर
अचानक कोई सुरीली-धुन बजने लगती है किसी की जेब में
कोई ज़ोर-ज़ोर से कहता है कि वह पहुँचने ही वाला है
कोई इत्मीनान से पूछता है कि कल फिर मिलना है
भले ही बारिश हो और डूब जाए समूचा नगर

घण्टी की तरह बज उठता है हर आदमी
फुटपाथ पर चलते हुए या बाज़ार से गुज़रते हुए
यंत्र की तरह शुरू होती है बातचीत बीच-बीच में
खोखली हँसी हाथों को झटककर चेहरे की मुद्राएँ बनाकर
हवा में ही आदमी मुखातिब होता है अदृश्य आदमी से
एक छोटे से यंत्र में उड़ेलने की कोशिश करता है भावनाएँ
लेकिन यंत्र की ख़ूबी है कि वह भावनाओं को भी
रूपांतरित कर देता है औपचारिकताओं में ।