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घनघोर घटा घिर घिर आई / पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
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घनघोर घटा घिर-घिर आई, नर्तन करें मयूर।
तन-मन मेरा तड़प रहा है, जो साजन हैं दूर॥
बरस रहें अविरल ये नैना,
चैन नहीं मिलता दिन-रैना,
नील गगन मेंं उड़ते फिरते,
द्विज फैलाए अपना डैना,
लगीं तोड़ने तटबंधों को, होकर नदियाँ क्रूर।
तन-मन मेरा तड़प रहा है, जो साजन हैं दूर॥
प्रीति रागिनी छेड़े कोयल,
बोल रहा पी-पी चातक दल,
लगी झूमने गीली माटी,
चूम-चूम यूँ हलधर पग-हल,
धान रोपती देह मटीली, स्वामी देखे घूर।
तन-मन मेरा तड़प रहा है, जो साजन हैं दूर॥
भूषण लगते भारी ऐसे,
पुष्प लदे हों पत्थर जैसे,
पीड़ा अपनी मैं ही जानूँ,
बीत रहा है प्रति क्षण कैसे।
अंग-अंग तरंग अनंग की, लहराए भरपूर।
तन-मन मेरा तड़प रहा है, जो साजन हैं दूर॥