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घनघोर बादलों में में छुपी बिजलियाँ भी हैं / प्रेम भारद्वाज
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					घोर बादलों में छुपी बिजलियाँ भी हैं 
कुछ हवा के दामन में आँधियाँ भी हैं 
हिम्मत से इस पहाड़ का रस्ता तो साफ कर
आगे कहीं इसी के रम्य घाटियाँ भी हैं
पत्थर उठा सके न किसी पर यह सोचकर
घर न हो यह काँच का तो ख़िड़कियाँ भी हैं
छोटी मछलियाँ भी हैं मगर ही का डर नहीं
जान की दुश्मन तो बड़ी मछलियाँ भी हैं
इन जिल्लतों के बाद भी वह मौन है अगर 
यह उसका संस्कार नहीं रोटियाँ भी है 
करते हैं फूल कितने निषेचित परागकण 
मौसम है खुशगवार कई तितलियाँ भी हैं
है प्रेम की ज़मीं का क्षरण इस के बावजूद 
कुछ कलाईयों में बँधी राखियाँ भी हैं
	
	