घनीभूत पीड़ा / शमशेर बहादुर सिंह
(एक सिम्फनी)
जवाँदराजियाँ खुदी की रह गयीं :
तेरी निगाहें कहना था सो कह गयीं।
- कोई
आँख मुँदी है न खुली!
एक ही चट्टान... लहर पार लहर, पार...
सूर्य के इस ओर ठहर
स्तम्भ-तुला पर सिहरा
मौन जलद-कन।
- आँख मुँदी है न खुली कोई।
× ×
बुलबुले उठे, उड़े
- कि तीरछे मुड़े :
खिले : फेन-कमल बन,
उज्ज्वलतम :
धनपट से दूर, वार, - खुले।
कोमल कन, छन्-छन्, बुलबुले।
ज्योति-जुड़े।
× ×
खोल, उठा ज्योति के मयंक।
अंक मिटा भाल के, निशंक!
मोह-सत्य भौंह बंक।
लौह सत्य प्रेम-पंक।
...अन्यथा व्यथा व्यथा, वृथा...
है अनादि : आदि रंक - शून्य अंक।
तोल उठा वक्ष के अशंक भाव
की अथाहता!
× ×
वर्जित को जीत, भीत को भगा :
मौन प्रेम में पगा हृदय जगा!
सुप्ति-शक्ति-पट विलोल,
खोले मुक्ताभ विमल उर अमोल
सम्पुट अलगा।
× ×
हे अमल अनल!
छोर कहाँ छोड़ा उस भाव का विमल :
सरिता-तट छोह जहाँ मोह का कमल?
चट्टानें तानें लहरों की नित रहीं तोड़
गति मरोड़ रहीं मनःस्वन की, -
उन्चास मोड़
होड़ ले रहे तुमसे केवल,
हे अमल अनल!
हे अमल अनल!
× ×
देखा था वह प्रभात;
तुम्हें साथ; पुनः रात :
पुलकित... फिर शिथिल गात;
तप्त माथ, स्वेद-स्नात;
मौन म्लान, पीत पात;
पुनः अश्रु-बिम्ब-लीन
शनैः स्वप्न-कम्प वात।
× ×
हे अगोरती विभा,
जोहती विभावरी!
हे अमा उमामयी,
भावलीन बावरी!
मौन मौन मानसी,
मानवी व्यथा-भरो!
लजाओ मत अभाव की परेख ले :
समाज आँख भर तुम्हें न देख ले।