घरक मलकाइन / विनय राय ‘बबुरंग’
आहि हो हमरा घर क मलकाईन
ऊपर से जेतना साफ हुई
भीतर से लागेली
सिसउवा पर क डाइन।।
बहुते बहादुर हई का पुछले बानीं
बिलइयो भड़कावे त मरे उनकर नानी
अकेले घर पावँऽ तक काटेली चानी
खरची क अनजा सरकावेली दुकानी
अइसन ई मिलल बाली हमें गुरुवाइन।।
पूछीं जनि हमरा से का ना कहेली
बिना बाते क नइहर क रस्ता धरेली
हमरा पर झूठे बेमतलब जरेली
मोटाइल बाली अइसे जइसे सहुवाईन।।
तनिको ना सुनऽ हमार ई कहलका
तरकारी बनावंऽ एक में रोटी बनावंऽ अलगा
उलटे ई घुड़की देली हो जाइब बिलगा
गाड़ी चलावेली अइसन कुलाईन।।
नारद क जइसन ई पाठ करेली
आंगन बँटवाई के नास करेली
तिन-पांच क हरदम ई चाल चलेली
आगे क जिनगी अन्हार करेली।
अइसन ई मिलल बाली बखरा मलकाइन।।
भोर होत पीपर का धोवेली सोर
सांझ होत दयादिन से करँ ऽ तोर मोर
तोर पुतवा चोर कि तोर पुतवा चोर
लड़त लड़त संझिये ले कइ देली भोर
एक नम्बर क उतरल बाली घर मंे झगड़ाहिन।।
खऽहीं क बेरिया इ फुस-फुस करेली
अपने अस हमरो में गोबर भरेली
अइसन इ अपना के होनहर बनेली
खइलो-पियल कुल जहर करेली
रोज सोडा सबुने चाही जइसे होखंऽ सहबाइन।
कवनों नाहीं तीरथ बरत के छोड़ेली
गरीबी हालत में कमर ई तोड़ेली
अपना पुतवा के घीव में चभोरेली
दुसरा क जनमल देख के जरेली
अइसन ई घर में करेली किचाइन
आहि हो हमरा घर क मलकाइन।।
एतने कविताई पर धई लेहलसि बाई
उहे हम लीखिलां जेवन करेलु बड़ाई
बुझात नइखे कइसे हमार इज्जत तोपाई
कवि अगर मंुह देखी त का करी कविताई
भले ई कविता लागी करुवाइन।।
आहि हो हमरा घर क मलकाईन।।