घरों के बंद दरीचे अगर खुले होंगे-
मकां में रोशनी के सिलसिले होंगे।
तब राह में भटक जाने का डर नहीं होगा,
करीब मंज़िल के जब पहुँचे हुए काफिले होंगे।
ज़माने ने कड़ी पाबंदियाँ लगा डालीं,
फकत दो चार कदम ही साथ हम चले होंगे।
निगाहें मिल भी जाएँ तो नज़र वह फेर लेगा,
ख़बर क्या थी कभी ऐसे भी फासले होंगे।
शीशा-ए-दिल चूर हुआ है अपनों की चोट से,
गैरों से भला फिर क्यूँ हमंे गिले होंगे।
दस्तूर-ए-दुनिया के मुताबिक हम भी,
बुरे के संग बुरे होंगे, भले के संग भले होंगे।
जहाँ माटी को सींचा था कभी अश्कों से हमने,
साथ काँटों के वहाँ शायद फूल भी खिले होंगे।