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घरों में रहने की पाबंदी / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
दरम्याँ
हम दोनों के
फासला
बस एक सड़क का था
अंदर ही अंदर हम दोनों में
सब कुछ तय हो चूका था
मसअला
बस टूटने से
रह जाती थी जो
उस झिझक का था
और कुछ घरों में रहने की
पाबन्दी ने भी
क़दम रोक रक्खे हैं
इनदिनों
आते जाते दिलके सारे
मौसम रोक रक्खे हैं
एक दरिया था
जो पार न कर सके हम
जाने क्यूं अब तक
इज़हार न कर सके हम
ये कैसा वक़्त था
जो हम दोनों पर भरी था
फ़क़त जमूरे थे हम
वक़्त मदारी था
ठहरा हुआ था सबकुछ
घडी भी बंद थी शायद
मैं इधर
बालकनी में खड़ा
आंसू बहा रहा था
और
उधर
वो
किचन में कड़ी
प्याज़ काट रही थी॥