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घर-घर दीप जले / विमल राजस्थानी

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घर-घर दीप जले, रावण के मस्तक चकनाचूर हुए
हुई राम की विजय, कष्ट तीनों लोकों के दूर हुए
चारों ओर खुशी की लहरें दौड़ी, प्रजा निहाल हुई
हुई राख की ढेरी, सोने की लंका कंगाल हुई
तब से हम प्रतिवर्ष मनाते दीपोत्सव, हो मस्त मगन
रावण के पुतले भी जलते हैं, होता है लंक-दहन
‘रामायण’ पढ़ते-सुनते हैं, ‘राम-राम’ चिल्लाते हैं
तब था एक, आज तो घर-घर ‘रावण’ देखे जाते हैं
कुर्सी पर ‘रावण’ बैठ हैं, गद्दी पर हैं ‘अहिरावण’
इजलासों पर ‘मेघनाद’ हैं, मठ-मन्दिर में ‘कुम्भकरण’
रावण रूप धरे नेता का, मुखिया औ’ सरपंच बना
मंत्री-रूप इस रक्षक-तक्षक का फन तना-तना
कहीं सेठ बन कर है बैठा, कहीं पुजारी औ’ मुल्ला
कहीं बना ‘रामावतार’ तो कहीं बना है ‘अब्दुल्ला’
‘रावण’ के गोदाम भरे हैं, गल्ला गायब हाटों से
ब्राह्मण लड़ते भूमिहार से, राजपूत जुट जाटों से
‘दूबे’ ‘चैबै’ पर सवार हैं, ‘शर्मा’ ‘वर्मा’ पर हावी
‘झेलम’ गंगा पर गुर्राती, ‘यमुना’ पर झपटे ‘रावी’
वह तेरा प्रदेश, यह मेरा, भाषा पर होते दंगे
कोई नहीं शरीफ, सभी हैं धोती के भीतर नंगे
‘रावण’ लूट रहे मस्ती से, लुटी जा रही जन-सीता
वेद ऊँघते हैं कब्रों में, मरघट में जलती गीता
पापों के अड्डे हैं तीरथ, मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे
नयन-मटक्काबाजी के गढ़ गली, मुहल्ले, चैबारे
जैसी बनी पुजारिन, मिलते उन्हें देवता भी वैसे
लाज बची रही है कफछ मां-बहनों की उफ ! जैसे-तैसे
महानाश की घड़ी आ गयी, बचा न अब कुछ भी बाकी
चूनर तार-तार हो बिखरी, नग्न-प्राय भारत मा की
महलों पर प्रकाश न्यौछावर, कुटियों बीच अँधेरा है
नाग झूमते हैं मस्ती में, डूबा समय-सँपेरा है
किन्तु, निराश न हों, युग-परिर्वतन की वेला आयी है
देखो-दिशि-दिशि में ‘प्रभात’ की ही अरूणाभा छायी है