घर का जोगी / सुभाष राय
मैं देख रहा हूँ
हर चौराहे पर
कुछ सिरफिरे
डण्डे भाँजते हुए
सबको एक बन्द गली में
ढकेल रहे हैं
भेड़ों की तरह भागे
चले जा रहे हैं सब के सब
गिद्ध मण्डरा रहे हैं आसमान में
सड़कों पर सन्नाटा पसर गया है
रह-रह कर डूबती हुई चीख़ें
प्रतिध्वनित होकर टकरा रही हैं
गली के दोनों ओर खड़े
बिना दरवाज़े वाले मकानों से
कुछ बच्चों के फेफड़ों से
बाहर खींच ली गई है आक्सीजन
उनकी माँएँ रो रही हैं दहाड़ मारकर
और वह हँसते हुए आँकड़ों का रजिस्टर पलट रहा है
ये मौतें ज़्यादा नहीं हैं रोज़ के औसत से
वे अपनी ग़लती से मरे हैं
वे मरते ही रहे हैं साल दर साल
उसने ज़ुबान खींच ली है एक पहरेदार की
जिसे कहा गया था जागते रहना
नहीं कोई उँगली न उठाए संन्यासी पर
वह सिद्ध है, जागते हुए सोने का अभ्यासी
घर का जोगी, आन गाँव का जोगड़ा नहीं