घर का सच / हरीश भादानी
घर का सच
अब ऐसा सा है !
मुझसे तो बावन कद ऊँची
लम्बी, चौखानी दीवारें
सांचों ढली, कसी छत ऊपर
चित-पट दोनों सुते-सुते से
धुंधआए काँचों की खिड़की
रोशनदान बिवाई जैसे
एक हाथवाला दरवाजा
उस पर खुदी आँख भर जाली
टनन-टनन पर ताका-झाँकी
एक अबोली हाँ-ना-ना-हाँ
नब्बे का आधा खुलते ही
अपने आप बन्द हो जाए
अब बाहर से
क्या रिश्ता है ?
भीतर सब मैं-मैं जैसा है
घर का सच
अब ऐसा सा है !
सजी-संवारी ये डिबियायें
मानें हैं खुद को दुनियायें
उझक-उझक देखा करती ये
टुकड़-टुकड़ा आसमान को
धूप तो केवल चिंदी-कतरन
हवा, साँस तो कूलर से ही
बातों की गुंजाइश कम है
पहले घड़ी, कलैंडर देखें
इनके अनुवादों, भाष्यों पर
होना, ना होना होता है
ये जब-जब भी बोली होतीं
मेरी खातिर गूंगे का गुड़
इसको खा
ना खाकर भी तो
कैसे कहूँ स्वाद कैसा है ?
घर का सच
अब ऐसा सा है !
इसे देखते लागे मुझको
मैं तो एक अजूबा भर हूँ
एक अजूबा पूछूँ किससे
किसने कहा घोलले खड़िया
ले माटी से उपजा डोका
यह ले चाकू थाम हाथ में
छिल-घिस-छिल-घिसकर इसको तू
लिखने वाली पाँख बनाले
ले यह पाटी अपने आगे
देख-समझ कर मांड मांडणे
अपने में ही धूज-धूजते
पाटी, पाँख थामली हाथों
ईंड-मींडिया
मांड-मांडते
लागा अ अच्छर जैसा है !
घर का सच
अब ऐसा सा है !
धर-मजलां लिख-लिखते समझा
घर का माने आँगन, आँगन
ऊपर आसमान जैसी छत
बगलग़ीर होत दरवाजे
धूप तो जेसे चोला-धोती
झलती पंखी साँस सरीखी
बोली तो ऐसी बोलारू
पाखी सुन माने बतलाए
पर अब तो बगसा बोले है
शाम हो ऐसी, सुबह वैसी,
दिन तो जोड़-गुणा-बाकी ही
रातों का व्याकरण अलग है
मुझ वामन को
यहा यूँ लागे
लीलावती गणित जैसा है !
घर का सच
अब ऐसा सा है !