घर की खुशियों को ठुकराना पागलपन है / जतिंदर शारदा
घर की खुशियों को ठुकराना पागलपन है
खुशियाँ बाहर ढूँढने जाना पागलपन है
बेहतर दिन की आस लगाना पागलपन है
बेहतरीन दिन व्यर्थ गंवाना पागलपन है
मेरे दिल में अब कितने अरमान हैं बाकी
नभ के तारों को गिन पाना पागलपन है
संघर्षों से व्यक्ति की पहचान निखरती
निज परिवेशों से घबराना पागलपन है
अपनी ओर देखकर हंसना बात पते की
देख किसी को हंसते जाना पागलपन है
सत्य के सन्मुख कैसे तेरा झूठ टिकेगा
सूरज को दीपक दिखलाना पागलपन है
एक जगह न रहे लक्ष्मी होती चंचल
जो दौलत को कहे खज़ाना पागलपन है
पृथक पृथक हैं सागर गागर की सीमाएँ
सिंधु को बिंदु में लाना पागलपन है
घर में पाले सांप न बक्शें घर वालों को
इन सांपों को दूध पिलाना पागलपन है
प्यार है अपने प्रियतम के प्रति पूर्ण समर्पण
प्यार में कोई शर्त लगाना पागलपन है